विपरीत परिस्थितियों में जीवन प्रबंधन के महानायक हैं राम
राम का मतलब है हर पल जीवन के इर्दगिर्द विपरीत परिस्थितियां। बाल्यकाल में गुरु द्वारा राक्षसों के वध के लिए माग कर ले जाना. राज्याभिषेक की दुंदुभि के बीच 14 साल का वनवास और वनगमन के साथ ही पिता की मृत्यु। पंचवटी में राक्षसों का तांडव। पंचवटी से पत्नी सीता का अपहरण । संसाधन विहीन दो वनवासियों द्वारा सीता की खोज। युद्ध में अपहरणकर्ता रावण को मार कर अपनी स्नेही पत्नी की अग्निपरीक्षा। धोबी के संवाद की आसूचना पर प्रसूता सीता को एक और वनवास। पुत्र लव कुश से अश्वमेध यज्ञ पर युद्ध। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम से पुत्र लव और कुश के साथ अयोध्या वापसी पर पत्नी सीट को एक और अग्निपरीक्षा की पीडा़। सीता का अपनी माँ धरती के आगोश में समा जाना। विपरीत परिस्थितियों में भाई लक्षमण को विपरीत परिस्थितियों में मृत्युदंड। इस तरह राम का सारा जीवन विपरीत परिस्थितियों में संयम क साथ संघर्ष और संसाधनों को जुटाने में लगा रहा।
गजब का प्रबंधन : राम सहज, सरल और सौम्य हैं. केवट, सबरी, नर वानर सबके प्रति समभाव रखते हैं. वनवास में ऋषि आश्रमों की परंपरा सीखते हैं उनके पारिवारिक सदस्य के रुप में कंदमूल फल खाकर जीवन यापन करते हैं। वनवास अवधि में भी वे शस्त्र और शास्त्र दोनों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। वनवास की अवधि समाप्त होने के एक बरस पहले रानी वैदेही का हरण, इस आपदा से राम के वनवास को अत्यधिक जटिल बना दिया।
पंचवटी में राम लक्ष्मण के अतिरिक्त मनुष्य नाम का कोई प्राणी नहीं। आखिर एक साल बाद अयोध्या जायेंगे तो क्या मुंह लेकर। जिस सीता ने पति का वनवास अपना भी वनवास माना उसका अपहरण। सबसे कठिन चुनौती थी संसाधन विहीन वनवासियों के लिए - सीता की खोज !
संसाधन शून्य हैं । तीर धनुष के अतिरिक्त वनवासियों के पास कुछ भी नहीं है। पंचवटी छोड़ दोनों भाई सीता की खोज में निकलते हैं। खग,मृग, कीट,पतंगे सबसे सीता के बारे में जानकारी लेते हैं। वहीं गिद्ध राज जटायु से उनकी मुलाकात होती है। जटायु घायल हैं। वे सीता के अपहरण का प्रतिरोध करते हैं। जटायु सीता के अपहरण का वृतांत राम को बताते हैं। रावण के प्रतिशोध की बात स्पष्ट होती है। परन्तु ज्यादा घायल होने के कारण उनके प्राण पखेरु हो जाते हैं ।दशरथनंदन जटायु का अंतिम संस्कार करते हैं। इस संकट में उनको सीता का प्रथम सुराग ही खग जाति से मिलता है। राम दयालु और करुणा के सागर हैं। एक अच्छे प्रबंधन के लिए करुणा,दया और सबके प्रति सम्मान की भावना अति आवश्यक है। ऋषिमुख पर्वत पर हनुमान जी से मुलाकात के बाद किष्किंधा में सुग्रीव, जामवन्त,नल,नील,अंगद से दोनों भाईयों की मुलाकात। बाली के वध के बाद वे सुग्रीव को राजपद देते हुए सारी वानर सेना को सीता की खोज का दायित्व सौंपते हैं। सीता की खोज के साथ शुरु होता है सेना के प्रत्येक सदस्य की शक्ति और क्षमताओं का आकलन। इसी आधार पर सबको अलग-अलग दायित्व सौंपे जाते हैं ।
रीछराज जामन्त मुख्य सलाहकार हैं । हनुमान और अंगद महायोद्धा हैं। नल नील तकनीकी विशेषज्ञ हैं । सबकी कार्य क्षमता,शक्ति, विद्या और ज्ञान की जानकारी जामवन्त रखते हैं। उनका सही समय पर सही उपयोग राम से कराते हैं । हनुमान जी की शक्ति जगाना, नल नील की विद्या का सेतु बनाने में उपयोग कराने में जामवंत का ज्ञान यह स्पष्ट करता है कि एक कुशल प्रबंधन और सेनानायक के पास जामवंत जैसा सुरक्षा सलाहकार, हनुमान और अंगद जैसे विनम्र और बलिहारी योद्धा होने चाहिए। विभीषण का शरणागत होने के बाद जिस तरह आसूचना संकलन में उसका उपयोग किया गया है यह युद्ध कौशल और रणनीतिकारों के लिए सीखने योग्य है। रावण की नाभि में अमृत होने की बात विभीषण के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था। राम प्रत्येक रणनीति का प्रबंध संचालन स्वयं करते हैं लेकिन सलाह सारी सेना से लेते हैं। रावण के मारे जाने के बाद भी नीति की बात रावण से सीखने की हिदायत भाई लक्ष्मण को देते हैं। नारी सम्मान भी राम से सीखने योग्य है। जिस सौतेली मां कैकेयी के वरदान से उनको वनवास मिला उन्होंने अपनी मां कौशल्या से अधिक सम्मान दिया। भीलनी सबरी के जूठे बेर गृहण करना,शत्रु दल की नारियों मंदोदरी का आदर राम के व्यक्तित्व को विशालता देते हैं। कुछ समालोचक सीता की अग्निपरीक्षा और एक और वनवास पर उन्हें कठोर और निर्दयी बताते हैं। इस संबन्ध में जनता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर उत्तररामचारित में महाकवि भवभूति लिखते हैं-
‘स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा ॥‘
स्नेह ,दया, मित्रता यहां तक कि जानकी को भी, जब भी प्रजा की सेवा के लिये मुझे छोड़ने पड़े तो मुझे कष्ट नही होगा। जो राजा अपनी प्रजा के लिए ,जिससे वे सर्वाधिक प्रेम करते हैं अपनी जानकी को भी छोड़ने में संकोच की बात नहीं सोचते ऐसी प्रतिबद्धता (commitment) वाला राजा(शासक) कहां हो सकता है।
जीवन के अंतिम छोर पर विपरीत परिस्थितियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। राम और काल की एक गुप्त बैठक में किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन दुर्वासा ऋषि टपक पड़े। उन्होंने श्राप का भी दिखाकर अंदर जाने की जिद की। महर्षि दुर्वासा के क्रोध और उनके श्राप देने के वचन सुनकर लक्ष्मण भयभीत हो गए और उन्होंने एक कठोर निर्णय ले लिया। उन्होंने सोचा कि यदि महर्षि दुर्वासा को अंदर नहीं जाने दिया तो भाई श्रीराम को श्राप का सामना करना पड़ेगा और श्रीराम की आज्ञा का पालन नहीं करने पर वो मृत्यु दंड के भागी बनेंगे। लक्ष्मण ने मृत्यु दंड को चुना। लक्ष्मण तुरंत श्रीराम के उस कक्ष में चले गए जहां पर वो चर्चा कर रहे थे। लक्ष्मण के वचन तोड़ने पर श्रीराम ने उनको उसी समय देश निकाला दे दिया। लक्ष्मण ने देश छोड़ने के बजाय दुनिया को छोड़ने का निर्णय किया और सरयू के किनारे गए और सरयू नदी में जलसमाधि ले ली और विष्णु लोक को प्रस्थान कर गए। जिस पत्नी को वे अत्यधिक प्रेम करते थे वह भू समाधि ले ली। जो भाई 14 साल के वनवास में सुख दुख का साक्षी रहा उसे अंततः जल समाधि लेनी पड़ी। शायद यह राम के जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा रही होगी। एक मानव के रूप में किसी के जीवन में इतनी उथल- पुथल कम ही देखने को मिलेगी। इन सारी विपदाओं का सहजता से प्रबंधन का नाम है राम।
राम उत्तर और दक्षिण की संस्कृति के सेतु हैं। वे आर्यावर्त के प्रथम यायावर हैं जो राज संस्कृति का अरण्य संस्कृति से समन्वय करते हैं। विपरीत परिस्थितियों से उनकी जूझने का सामर्थ्य, धैर्य, संयम, संसाधनों को जुटाने की अद्भुत क्षमता, समभाव, न्याय, त्याग की पराकाष्ठा उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बना देती है। 21वीं सदी में दुनिया में युद्ध ,भय , अन्याय ,अत्याचार एक वैश्विक समस्या बन गयी है। जीवन की सुरक्षा का आपात काल है। आदमी का आदमी के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है। यह मानवता की परीक्षा की घड़ी है। विपरीत परिस्थितियों में हम धैर्य, करुणा, संवेदनशीलता , मित्रता के भाव से ही इस परीक्षा में सफल हो सकते है। राम से श्रेष्ठ मॉडल आज की दुनिया के सामने हो ही नहीं सकता।
डॉ गिरिजा किशोर पाठक, लेखक एवं स्तंभकार