समय आ गया है पुलिस अनुसंधान को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने का।
लोकतंत्र में पुलिस का काम “ कानून का शासन “ स्थापित करना है। कानून का शासन स्थापित करने के लिए यह जरूरी है कि जो कानून का उल्लंघन करें उसे राज्य में प्रचलित कानून के अनुसार दंड दिलाने के लिए अभियोग पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया जाए। अभियोग पत्र बनाने के लिए महत्वपूर्ण होता है पारदर्शी अनुसंधान। अनुसंधान एक कानूनी प्रक्रिया है। भारतीय न्याय व्यवस्था 3 प्रमुख अधिनियम, भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम के अतिरिक्त लगभग केंद्र और राज्यों के 500 से अधिक लघु अधिनियमों से संचालित होती है। अनुसंधान में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में गिरफ़्तारी, धार 100 में जब्ती , धारा 161/164 में कथन लिपिबद्ध करना महत्व पूर्ण है।पुलिस राज्य सूची का विषय है लेकिन एनआइए, सीबीआइ,नारकोटिक ब्यूरो, सेंट्रल एक्साइज और इंफोर्समैंट एजैंसियों के माध्यम से केन्द्र भी अनुसंधान में संलग्न रहता है। अनुसंधान में राजनीतिक हस्तक्षेप दबी जुबान अनुसंधान एजेंसियां स्वीकार करती हैं। सत्ता बदलती रहती है अतः राजनीतिक दल इससे 100% वाकिफ हैं। जनता रोज इस खेल की मूक दर्शक है।
हालिया वर्षों में अनुसंधान पर न्यायालय ने बड़ी तल्ख टिप्पणी जारी की है। चाहे पंजाब पुलिस द्वारा दिल्ली से तेजिंदर पाल सिंह बग्घा की गिरफ्तारी का मामला हो या सीबीआई द्वारा पंजाब के आम आदमी पार्टी के विधायक जसवंत सिंह के ठिकानों पर छापामारी, अथवा 2015 में मध्य प्रदेश के साइबर सेल द्वारा पूना से रिनी जौहर और गुलशन जौहर की गिरफ्तारी का प्रकरण हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर काफी प्रश्नों के उठे. तेजेंद्र पाल सिंह की गिरफ्तारी पर पंजाब पुलिस कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने में असफल रही उसी प्रकार रिनी जोहर और गुलशन जौहार के प्रकरण में मध्य प्रदेश के साइबर सेल के वरिष्ठ अधिकारियों की लापरवाही पर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर प्रश्न उठाएं।
इसी प्रकार 31 जुलाई 2009 में मेडिकल के छात्र चंद्रेश मर्सकोले के आजन्म कारावास के प्रकरण को भी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अनुसंधान को त्रुटिपूर्ण तथा महज परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर ही चार्जसीट पेश करने तथा शीर्ष अधिकारियों की भूमिका पर उंगली उठाई है। इसी तरह उच्च न्यायालय ने जबलपुर जौन के वरिष्ठ भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों को एक बलात्कार के प्रकरण के अनुसंधान में लापरवाही के लिए दोषी माना है। यद्यपि इसमें कई तथ्य अर्ध सत्य हो सकते है। लेकिन अनुसंधान पर प्रश्न कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब जगह उठ रहे हैं। पूरे भारत के राज्यों तथा केंद्रीय अनुसंधान संस्थाओं के कार्य के और तरीकों पर आम आदमी के मन में कई प्रश्न उठ खड़े हो रहे हैं। लोगों को लगता है कि कई बार पुलिस को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अपने राजनीतिक हितों का टूल बना दिया जाता है। अनुसंधान की विश्वसनीयता कैसे बढ़ाई जाए इस पर समग्र चिंतन किया जाना जरूरी है।
ऐसा नहीं की भारत में अनुसंधान और पुलिस सुधार पर चिंतन ही नहीं हुआ। 1977 में गठित धर्मवीर आयोग ने 1979-81 के बीच 8 रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौपी । इसके बाद निरंतर पुलिस सुधार और अनुसंधान पर रिबिरो समिति 1998, पद्मनाभ समिति 2000, मलिमथ समिति 2002-03, थीसोली सोराबजी (पूर्व महान्यायवादी)। समिति 2005 का गठन हुआ। इस समिति ने 2006 के अंत में केंद्र सरकार को एक मॉडल पुलिस अधिनियम प्रस्तुत किया। 1996, प्रकाश सिंह (के पूर्व प्रमुख असम पुलिस तथा उत्तर प्रदेश पुलिस और बाद में महानिदेशक सीमा सुरक्षा बल) ने पहल की जनहित याचिका (PIL) पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय, ने भारत भर के पुलिस बलों में सुधार के उपायों की जांच करने और कानून के समुचित शासन को सुनिश्चित करने के लिए भारत भर में सुरक्षा में सुधार करने के उपायों की जांच करने के लिए कहा। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों पर विभिन्न रिपोर्टों का अध्ययन किया। अंत में, 2006 में, न्यायमूर्ति की एक पीठ सभरवाल, न्यायमूर्ति सीके ठक्कर और न्यायमूर्ति पीके बालासुब्रमण्यन ने राज्य सरकारों को पुलिस बल में कई सुधारों को लागू करने के 7 प्रमुख आदेश दिये। जिसमें एक महत्वपूर्ण निर्देश यह भी था कि अनुसंधान और कानून व्यवस्था की पुलिस अलग अलग होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि "अनुसंधान करने वाली पुलिस को कानून और व्यवस्था पुलिस से अलग किया जाएगा ताकि लोगों के साथ त्वरित जांच, बेहतर विशेषज्ञता और बेहतर संबंध सुनिश्चित किया जा सके। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि दोनों विंगों के बीच पूर्ण समन्वय हो’। " सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) ने अध्ययन किया इसने अपनी रिपोर्ट में पाया कि केवल 18 राज्यों ने सुधार के लिए 2006 के बाद नए पुलिस एक्ट को पारित किये जबकि बाकी राज्यों ने सरकारी आदेश/अधिसूचनाएं जारी की। मध्य प्रदेश में भी सुधार वाला पुलिस एक्ट बल्लभ भवन के गलियारे में धूल खा रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इन 16 सालों में कागजी खेल के सिवा कुछ साफ साफ हासिल नहीं हुआ है। इस पर याचिका कर्ता रहे पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह कहते हैं कि .. ‘पुलिस सुधार न होने से किसी को फायदा नहीं है. बस ब्यूरोक्रेसी और नेता लोग अपनी जमींदारी छोड़ना नहीं चाहते हैं. अभी वह पुलिस को जैसे चाहे वैसा घुमा सकते हैं. तो वह यही जमींदारी नहीं छोड़ना चाहते हैं. स्थिति यह होनी चाहिए कि पुलिस को किसी गलत काम के लिए ये लोग कहें और वह मना कर दे और ये लोग उसका कोई नुकसान भी न कर पाएं. सही मायने में पुलिस तभी स्वायत्त होगी. आगे वे कहते हैं कि ‘ सरकारें अपने फायदे के लिए पुलिस का दुरुपयोग करती हैं. राज्यसत्ता के पास पुलिस ऐसी ताकत है जो विरोधियों से निपटने से लेकर अपनी नाकामी छिपाने तक में काम आती है. यह एक मुख्य वजह है कि जिसके कारण सरकारें पुलिस प्रणाली में सुधार करने के लिए तैयार नहीं हैं.’
पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, तमिलनाडू, केरल सहित अनेक राज्यों की पुलिस के अनुसंधान पर न्यायालय ने तल्ख टिप्पणियां समय समय पर जारी की है। 90 % पुलिस अधिकारी मानते हैं है की अनुसंधान के दौरान उन राजनीतिक दलों के दबाव में रहता है विशेष रुप से सत्ताधारी राजनीतिक दल का। सत्ताधारी राजनीतिक दल ही नहीं उसके आनुषंगिक संगठन भी अपराधी को निर्दोष बताकर अपराधियों को छुड़वाने की पुरजोर कोशिश करते हैं। अपराधी का निर्दोष होना राजनीतिक दल अथवा उनके आनुषंगिक संगठन, हित समूह, दबाव समूह तथा राजनीतिक विचारधाराओं से संबंध छात्र संगठन, श्रमिक संगठन, उद्योगपति सभी इसमें शामिल रहते हैं। पुलिस निर्धारित लक्ष्मण रेखा के कारण मौन रहती है। यही नहीं बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग भी अब इस खेल में प्रवेश कर गया है।नक्सली और आतंकवादी क्षेत्रों में ऐसे फ्रंट संगठन सक्रिय हैं। आम राजनीति कार्यकर्ता यह तर्क देता है कि ” हमारी पार्टी की सरकार है हमारे आदमी को पुलिस बंद कर रही है।’ और कई बार चुनाव के दौरान या अन्य समय में लगभग हर राज्य में विपक्षी राजनीतिक दलों के नेता पुलिस को मंच से धमकी देते देखे गए हैं कि हमारी सरकार आएगी तो फिर हम उनको ठीक करेंगे। बहुत दबाव के बीच पुलिस को विपरीत परिस्थिति में साक्ष्य संकलित करने पड़ते हैं और चार्ज शीट न्यायालय में प्रस्तुत करनी पड़ती है। बहुत से प्रकरणों में साक्षी न्यायालय में बदल जाते और न्यायालय की कठोर टिप्पणी अंततः पुलिस के अनुसंधान पर आ जाती है।
ऐसी परिस्थिति में पुलिस शत प्रतिशत सही साक्ष्य कैसे संकलित करें इस पर विचार करना जरूरी है। भारतीय गणतंत्र में भिन्न भिन्न राज्यों में अलग अलग राजनीतिक दलों की सरकार हैं। भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार पुलिस और लोक व्यवस्था राज्य के विषय हैं इसलिए अपराध रोकने, पता लगाने अनुसंधान, और अभियोजन भी राज्य की मुख्य जिम्मेदारी है। केन्द्रीय जांच संस्थाएं केन्द्रीय कानून के अनुरूप केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहती हैं। देश का कानून एक है प्रदेश की विधान सभाओं ने राज्य की आवश्यकताओं के अनुरूप अनेक कानून बनाए हैं। संघीय ढ़ाचे में अनेक मुद्दों पर केंद्र और राज्य सरकारों के मत भी भिन्न भिन्न रहते है। इनके हितों की विभिन्नता के टकराव के कारण अनुसंधान संस्थाओं को तरह तरह के दबाव झेलने पड़ते हैं। अनेक बार दो राज्यों अथवा केंद्र और राज्य की पुलिस आमने सामने खड़ी नजर आती है।
भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि राजनीतिक विचारधारा या राजनीतिक हितों से परे पुलिस के अनुसंधान में हस्तक्षेप न हो और पुलिस का टूल के रूप में राजनीतिक सत्ताधारियों द्वारा उपयोग न किया जाए। आज की आवश्यकता है हर राज्य में अनुसंधान के लिए एक हर थाना स्तर पर अलग अलग अनुसंधान इकाई हो जिसकी अनुसंधान ही पूर्ण जिम्मेदारी हो। अनुसंधान संस्था को नियंत्रित करने के लिए एक अनुसंधान और अभियोजन नियमन समिति प्रदेश स्तर पर हो हो जिसमें जिला स्तर पर जिला नियमन समिति हो। समिति में उच्चतम न्यायालय य उच्च न्यायालय के सेवानिवृति न्यायाधीश , अनुसंधान का ज्ञान रखने वाले वरिष्ठ पुलिस और प्रशासन के अनुभवी अधिकारी, प्रख्यात समाजसेवी, प्रेस से जुड़े बुद्धिजीवियों की सेवाएं ले सकते है। नियामक समिति का गठन में के मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अनुसंधान में दक्ष्य पुलिस अधिकारियों को शामिल किया जाना चाहिए।
डॉ गिरिजा किशोर पाठक
लेखक, स्तंभकार भा.पु.से ( सेनि)