सुंदर लाल बहुगुणा हिमालय के इकोसिस्टम के संरक्षण का एक लड़ाका : न थका, न हारा और चल दिया
स्मृति शेष : सुंदर लाल बहुगुणा
हिमालय के इकोसिस्टम के संरक्षण का एक लड़ाका : न थका, न हारा और चल दिया
9 जनवरी, 1927 को उत्तराखंड हिमालय में जन्मे सुंदरलाल का गंगा, गंगा की माटी ,गंगा के इर्द-गिर्द वन और वन्य जीवन से अगाध स्नेह था। गंगा और हिमालय की मिट्टी के लिए वे खड़े हुए ,लड़े ,न थके न हारे और 21 मई 2021 को अपना संघर्ष और शरीर मां गंगा को अर्पित कर दिये। हां, बहाना कोरोना जरूर था । क्षेत्रीय लोगों का जीवन संघर्ष उनकी पाठशाला थी। जिस काल खण्ड में उनका जन्म हुआ था उस कालखंड में अंग्रेज लकड़ी के गोदाम पर गोदाम बना कर हिमालय के प्राकृतिक जंगलों को नष्ट कर चुके थे। ब्रिटिश कंजरवेटर, डीएफओ, रेंजर, पतरौल वन संपदा की वृद्धि के लिए नहीं वरन व्यापार के लिए होते थे। जागीरदार और राजे रजवाड़ों का अत्याचार चरम पर था। शराब की आहट पहाड़ को बर्बाद कर रही थी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संघर्ष शुरू किया 1956 में पत्नी बिमला जी के साथ सप्तपदी के बाद हमेशा के लिए राजनीति छोड़ कर सर्वोदय के सानिध्य में सेवा और जन संघर्ष का रास्ता अपनाया। उस जमाने के पहाड़ में युवा पढ़ाई के बाद सीधे अध्यापक बन रहे थे। उन्होंने नौकरी का रास्ता भी नहीं अपनाया। वे चाहते तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ सत्ता की बुलंदियों को छू सकते थे उस समय कांग्रेस की तूती बोलती थी। लेकिन उन्होंने खामोश सड़क पर संघर्ष का रास्ता ही पसंद किया। टिहरी की निरंकुश राजशाही में भी और आजाद भारत में भी।
डा राममनोहर लोहिया कहते थे कि 'जब सड़क खामोश हो जाती है तो संसद अबारा हो जाती है।' उन्होंने खामोश सड़क पर जन सैलाब के साथ संघर्ष किया । चाहे शराब नीति हो, वन नीति हो या विशाल टेहरी बांध की नीति।1965 से 1970 तक राज्य की महिलाओं को शराब विरोधी अभियानों में संगठित करना शुरू किया। भारतीय संसद और उत्तर प्रदेश विधान सभा से अनेक जनविरोधी कानूनों पर रोक लगाने में उनके योगदान को माना जाना ही चाहिए। 1980 में 5000 किमी की काश्मीर से कोहिमा तक की पद यात्रा की। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भेंट की और 15 सालों तक के लिए पेड़ों के काटने पर रोक लगाने में सफलता प्राप्त की। अनेक कानूनों में संशोधन करवाया । वे लड़े, पदयात्रायों की, शोषण और दोहन के खिलाफ सारी दुनियां में अपनी आवाज हिमालय के हित में बुलन्द करते रहे। वे ऐसा हिमालय चाहते थे जहाँ नदियां उच्छास से बह सकें,उनमें बारहों मास पानी रहे। विकास के नाम पर धरती, जल, जंगल और जीव जंतुओं का अस्तित्व समाप्त न किया जाये।
आज हालत चिंताजनक है उत्तराखंड के पास 70% वन भूमि थी इन 20 सालों में 50,000 वन भूमि विकास की गतिविधियों के कारण लगभग समाप्त हो गई है। इन वनों में वृक्षों की 112 प्रजातियाँ, 73 बेलों की और 94 झाड़ियों की प्रजातियाँ भी संकट में हैं। इसका कारण माइनिंग, हाइड्रो पावर प्लांट, सड़क निर्माण, रेल, विद्युत वितरण, जल वितरण जैसी योजनाएं महत्वपूर्ण हैं। इंडियन स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 की माने तो उधम सिंह नगर -4.2, हरिद्वार -2.7 , नैनीताल -6.4 वनों की नकारात्मक ग्रोथ है। 2018 की यूएनडीपी की रिपोर्ट की माने तो इन वर्षों में 2.6 लाख जल श्रोत जो 90 % लोगों की प्यास बुझाते हैं। 500 तालाब, झररे , नौले 50% से अधिक सूखने के कगार पर हैं। कारण है नदी और जंगलों की दर्दशा। आज के उत्तराखंड में पीने का पानी एक बहुत बड़ी समस्या बन गया है। इसी प्रकार जंगल और पानी के श्रोत समाप्त होने के कारण जंगली जानवर हाथी, शेर, बाघ, घूरड़, काकड़ कस्बों और गांवों में घुस रहे हैं। नरभक्षी बाघ की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। ग्रीष्म काल में जंगलों की आग भी ग्रामीणों के दुख का कारण है। इस पर नियंत्रण के लिए वन विभाग के पास कोई ठोस निदान नहीं है। परिवर्तित परिस्थितियों में विकास कार्यों के नाम पर बेतहाशा नदियों से रेत और जंगलों की खदानों से पत्थर तोड़े जाने के कारण पूरा जलवायु तंत्र तहस-नहस हो रहा है आज की तारीख में पानी और हवा सबको चाहिए और जंगली पौधौं की औषधि भी । लेकिन जल, जंगल और नदियों के सुरक्षा और सम्मान को चुनौती भी आदमी ही दे रहा है। सुंदरलाल जी के संघर्ष के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और सरकारों ने जमुनालाल बजाज से लेकर पद्म विभूषण तक अनगिनत सम्मानों से उन्हें नवाजा लेकिन कोई सम्मान उनके संघर्ष के आड़े नहीं आया।
कुछ वामपंथी और कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा जल, जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए चिपको आंदोलन और टेहरी बांध की लड़ाई में कुछ दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा बहुगुणा को समर्थन देने के कारण उनके योगदान को कमतर आंकने का प्रयास किया और यह भी कहा गया कि वे अनाहक चिपको आंदोलन का श्रेय लेने लगे। सत्य ये है कि उन्होंने विश्व स्तर पर चिपको आंदोलन को एक पहचान दिलायी। रही बात भागीदारी के उल्लेख की तो उन्होंने तो यहाँ तक कि जोधपुर के खेजड़ली गांव में रहने वाली अमृता देवी के द्वारा सन 1730 में पर्यावरण को बचाने के लिए चलाये खेजड़ली आन्दोलन को भी चिपको आंदोलन का श्रेय दिया। उन्होंने गौरा देवी, चंडी प्रसाद भट्ट, सुदेशा देवी, बचनी देवी, शमशेर सिंह बिष्ट, गोविंद सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, घनश्याम रातड़ी इत्यादि सबको आंदोलन का अग्रणी सदस्य माना और बराबर सम्मान दिया। कभी गौरा देवी और चण्डी प्रसाद भट्ट जी के संघर्ष के अलग कोई नयी लकीर खींची हो ऐसा सुनने में नहीं आया। एक सहयोगी की तरह वे महिलाओं के चिपको आंदोलन के साथ जुड़े कभी एकला भी चले और जन के साथ भी चले । वे एक गांधीवादी सर्वोदयी ऐक्टिविस्ट के साथ-साथ अच्छे विश्लेषक, अच्छे वक्ता और अच्छे पत्रकार भी थे। इस कारण अपनी बात को विश्वपटल पर आसानी से रख पाये। हिमालय की जल, जंगल, जमीन की लड़ाई की जो मशाल वे जला गये उस मशाल का टार्च विययर अभी मिलना बाकी है। उनकी पुण्य तिथि पर पता लगा है कि उनकी पुत्री मधु पाठक ने “संकल्प के हिमालय सुंदरलाल बहुगुणा” नाम की एक पुस्तक का संपादन किया है निश्चित रूप से इस पुस्तक के लेख हिमालय और उससे उसके बारे में चिंता करने वाले हजारों लाखों लोगों को हिमालय पुत्र स्वर्गीय सुंदरलाल बहुगुणा का संदेश पहुंचाने में सफल होगे, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए। शायद पुस्तक के माध्यम से कुछ संदेश नेताओं और नौकरशाहों तक भी पहुंच जाएं तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।
पर्यावरण समीक्षक बताते हैं कि उत्तराखण्ड राज्य के गठन के बाद इस क्षेत्र के हिमालय के प्राकृतिक वनों,ग्लेशियर,पहाड़ों और नदियों पर जिस तरह दोहन का दबाव बढ़ रहा है वह गंभीर चिंता का विषय है। लेकिन दोहन के विरोध में आज सड़कें खामोश है। राजनीति और नौकरशाही का गठबंधन और इस गठबंधन का नकारापन भी हिमालय को विकास के नाम पर बंजर बना सकता है ऐसा कुछ लोग मानते हैं। नया भू कानून भी हिमालय के इकोसिस्टम को बनाये रखने के लिए एक चुनौती है।
-गिरिजा किशोर