उपदेशों और सिद्धांतो की इतनी भरमार है कि परमात्मा को अर्थात अपने जीवन के परम लक्ष्य को ढूंढना घास में से सुई खोजने के बराबर हो गया है। कुछ लोगों के लिए आध्यात्मिकता, माया से मुक्त होने का साधन है तो कुछ लोगों के लिए यह तप और भक्ति से भी अधिक उच्च स्तर का मार्ग है। भले ही परमलक्ष्य तक पहुंचने के विभिन्न मार्ग क्यों न हों, लेकिन योग उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं करता। एक योगी के लिए यह संपूर्ण सृष्टि किसी नाटक के समान है। चरित्रों और दृष्यों से प्रभावित हुए बिना इस नाटक का अनुभव करना ही परम उद्देश्य है। आवश्यकता कर्म से ऊपर उठने की है। कृष्ण ने अपनी लीला से इस महत्व को समझाया कि नाटक के मोह में नहीं बंधना है। न ही इससे प्रभावित होना है। यही निष्काम कर्म है। जो सुख- दुख से परे रखता है। मनुष्य में आध्यात्मिक उत्थान की प्रक्रिया शुरु होती और आगे बढ़ती है तो आत्मा विभिन्न चप्रों और जीवन के पहलुओं से होते हुए निरंतर आरोहण करने लगती है।   
जीवन में भौतिक शरीर की मूल आवश्यकताओं और इच्छाओं से ऊपर उठते हुए उच्चतम शिखरों को छूते हुए अंत में स्वयं से और इस संसार से भी ऊपर उठना होता है। सनातन क्रिया में अष्टांग योग के आठों अंग पूर्णतया सम्मिलित हैं। गुरु के सानिध्य में इस क्रिया को करने से निम्न चप्रों से आज्ञा चप्र व उससे आगे तक पहुंचने का मार्ग स्पष्ट हो जाता है।  किसी युग में चप्रों पार करने और अंतिम स्थिति तक तक पहुंचना आसान रहा होगा पर आज हम जिस युग में रह रहे हैं, उसमें ऊंचाई तक पहुंचने के लिए प्रचंड पुरुषार्थ करने की जरूरत रहती है। शास्त्रों और उन्हें जानने वाले ज्ञानीजनों के अनुसार कलियुग के इस अंतिम चरण में हम सब में से अधिकतर व्यक्ति स्वाधिष्ठान के स्तर पर ही अटके हुए हैं।  कुछ ही अनाहद तक पहुंच सके हैं और उससे भी कम विशुद्धियां तक का मार्ग तय कर पाए हैं। जो आज्ञा चप्र तक पहुंच चुके हैं, उन्हें आनंद की अनुभूति हो चुकी है और वे दिव्य शक्ति के साथ एक हो चुके हैं। वे गहन चिंतन के साथ अनंत आनंद की अवस्था में हैं।   
आज्ञा चप्र तक पहुंचने के लिए विभिन्न युगों में कठिन और प्रखर साधन करने होते थे। इस युग में स्थितियां ऐसी नहीं है कि कठिन साधनाएं की जा सकें। एक ध्यान ही ज्यादा समर्थ है। आज्ञा चप्र तक पहुंचने और इसे जागृत करने में भी यही उपाय काम आता है।