सदाचार का तब तक पालन किए जाओ जब तक यह तुम्हारा स्वभाव न बन जाए। मित्रता, दया और ध्यान का अभ्यास जारी रखो। जब तक यह न समझ जाओ कि यह तुम्हारा स्वभाव है। जब कार्य स्वभावत: किया जाता है,तब तुम फल की लालसा नहीं रखते हो। सहजता से बस कार्य किए जाते हो। स्वभावत: किया हुआ काम न तो थकान देता है और न पुंठित करता है।  
दांत  साफ करना, नहाना, इत्यादि दैनिक कार्य को कृत्य नहीं समझा जाता क्योंकि ये दैनिक जीवन से जुड़े क्रिया-कलाप हैं। इन सब कार्यं को तुम बिन कर्तापन के करते हो। जब सेवा तुम्हारा स्वभाव बन जाता है, तब यह कर्तापन रहित होता है। ज्ञानी अभ्यास जारी रखते हैं ताकि वे औरों के लिए उदाहरण बनें, हांलाकि उनको किसी अभ्यास की आवश्यता नहीं।  
जो संवेदनशील हैं, प्राय: वे कमजोर होते हैं। जो स्वयं को सबल समझते हैं, वे प्राय: असंवेदनशील होते हैं। कुछ व्यक्ति स्वयं के प्रति संवेदनशील होते हैं पर औरों के प्रति नहीं। और कुछ लोग दूसरों के प्रति संवेदनशील होते हैं, पर खुद के प्रति नहीं। जो व्यक्ति केवल अपने प्रति संवेदशील हैं, वे प्राय: औरों को दोष देते हैं। जो केवल दूसरों के प्रति संवेदनशवील होते हैं, वे स्वयं को असहाय और दीन समझते हैं। कुछ इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संवेदनशील होना ही नहीं चाहिए क्योंकि संवेदनशीलता पीड़ा लाती है।  
वे अपने आप को औरों से दूर रखने लगते हैं परन्तु यदि तुम संवेदनशील नहीं हो तो जीवन के अनेक सूक्ष्म अनुभवों को खो दोगे जैसे अंतर्ज्ञान, सौन्दर्य और प्रेम का उल्लास। यह पथ और ज्ञान तुम्हें सबल भी बनाता है और संवेदनशील भी। असंवेदनशील व्यक्ति प्राय: अपनी कमजोरियों को नहीं पहचानते। और जो संवेदनशील हैं, वे अपनी ताकत को नहीं पहचानते। उनकी संवेदनशीलता ही  उनकी ताकत है। संवेदनशीलता अंतर्ज्ञान है, अनुकम्पा है, प्रेम है। संवेदनशीलता आत्म-बल है। और आत्म-बल है स्थिरता, तितिक्षा (सहनशीलता), मौन, प्रतिक्रिया-विहीनता, आत्मविश्वास, निष्ठा और एक मुस्कान। संवेदनशील और सबल, दोनों बनो।