सत्ता के संचालन में शक्ति की अपेक्षा रहती है या नहीं, यह एक बड़ा प्रश्न है। शक्ति दो प्रकार की होती है- नैतिक शक्ति और उपकरण शक्ति। नैतिक शक्ति के बिना तो व्यक्ति सही ढंग से प्रशासन कर ही नहीं सकता। उपकरण शक्ति का जहां तक प्रश्न है, एक सीमा तक वह भी जरूरी है। किंतु वह शक्ति का एकमात्र तत्व नहीं है। उससे भी अधिक आवश्यक है- बुद्धि, विवेक, साहस और निर्णायक क्षमता। जिस शासक में ये चारो तत्व नहीं होते, वह सही रूप से सत्ता को संचालित नहीं कर सकता। एक शासक के पास बहुत बड़ी सेना हो, शस्त्रों का विशद भंडार हो; पर सही समझ न हो और समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता न हो तो शक्ति भी अहितकर बन जाती है। सामान्यत: राष्ट्रीय एवं सामाजिक सत्ता के संचालन में शक्ति तत्व अपेक्षित रहता है, पर वही सब कुछ नहीं है, परम तत्व नहीं है।  
अधिकारी व्यक्ति की चरित्रनिष्ठा, जागरूकता और जनता की सहानुभूति का योग होने से ही सत्ता के गलियारों को पार किया जा सकता है। किसी एक तत्व की कमी होते ही प्रशासक विवादों के घेरे में खड़ा हो जाता है। उस समय वह सत्ता का संचालन करता है या सत्ता के द्वारा संचालित होता है, कुछ कहना कठिन है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और रावण का प्रसंग प्रसिद्ध है। रावण की सत्ता से संसार कांपता था, इधर राम वनवासी थे। उनके पास न वैसी सेना थी, न वैसा शास्त्रबल था। फिर भी उन्होंने रावण की सत्ता को चुनौती दे दी। रावण धराशायी हो गया, क्योंकि उसका चरित्रबल क्षीण हो गया, सूझबूझ समाप्त हो गई, सही निर्णय लेने की क्षमता चुक गई और उसने जनता की सहानुभूति खोकर गृह-कलह के बीज बो दिए। शक्ति के सहारे सत्ता का संचालन होता तो न रावण मारा जाता और न कौरवों को पराजय का मुंह देखना पड़ता। पिछली सदी तक भारत का शासन-सूत्र अंग्रेज संभाल रहे थे, शक्ति की उनके पास कमी नहीं थी। उनके सामने भारत छोड़ने की विवशता शक्ति की कमी से नहीं थी। ये प्रसंग प्रमाणित करते हैं कि प्रबुद्ध जनता केवल शक्ति के आधार पर शासित नहीं हो सकती।