प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए तदनुरूप योग्यता एवं कर्मनिष्ठा उत्पन्न करनी पड़ती है। साधन जुटाने पड़ते हैं। कठिनाइयों से जूझने, अड़चनों को निरस्त करने और मार्ग रोककर बैठे हुए अवरोधों को हटाने के लिए साहस, शौर्य और सूझबूझ का परिचय देना पड़ता है। जो कठिनाइयों से जूझ सकता है और प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के साधन जुटा सकता है, उसी को प्रतिभावान कहते हैं। सामुदायिक सार्वजनिक क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाने के लिए और भी अधिक प्रखरता चाहिए। यह विशाल क्षेत्र, आवश्यकताओं और गुत्थियों की दृष्टि से तो और भी बढ़ा-चढ़ा होता है। हीन वर्ग अपने साधनों के लिए, मार्गदर्शन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह परजीवी वर्ग ही मनुष्यों में बहुलता के साथ पाया जाता है। अनुकरण और आश्रय ही उसका स्वभाव होता है। ऐसे लोग निजी निर्धारण कदाचित ही कभी कर पाते हैं। दूसरा वर्ग-समझदार होते हुए भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। योग्यता और तत्परता जैसी विशेषताएं होते हुए भी ऐसे लोग अपने को लोभ, अहंकार की पूर्ति के लिए ही नियोजित किए रहते हैं।  
वे कृपणता और कायरता के दबाव में वे पुण्य-परमार्थ की बात सोच ही नहीं पाते। अवसर मिलने पर अनुचित कर बैठते हैं और महत्व न मिलने पर अनर्थ कर बैठते हैं। वे जैसे-तैसे जी लेते हैं, पर श्रेय सम्मान जैसी किसी मानवोचित्त उपलब्धि के साथ उनका संबंध नहीं जुड़ता। उन्हें जनसंख्या का घटक भर माना जाता है। तीसरा वर्ग प्रतिभाशालियों का है। ये भौतिक क्षेत्र में कार्यरत रहते हुए अनेक व्यवस्थाएं बनाते हैं। ये अनुशासन और अनुबंधों से बंधे रहते हैं। अपनी नाव अपने बलबूते खेते हैं और उसमें बिठाकर अन्यों को भी पार करते हैं। कारखानों के व्यवस्थापक और शासनाध्यक्ष प्राय: इन्हीं विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं। बोलचाल की भाषा में उन्हें ही प्रतिभावान कहते हैं।सबसे ऊंची श्रेणी देवमानवों की है, जिन्हें महापुरुष भी कहते हैं। प्रतिभा तो उनमें भरपूर होती हैं, पर वे उसका उपयोग आत्म परिष्कार से लेकर लोकमंगल तक उच्च स्तरीय प्रयोजनों में लगाते हैं। निजी आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं के बजाय अपने शक्ति भंडार को परमार्थ में लगाते हैं। किसी देश की सच्ची संपदा वे ही समझे जाते हैं। वे अपने कार्य क्षेत्र को नंदनवन जैसा सुवासित करते हैं। जहां भी बादलों की तरह बरसते हैं, वहीं मखमली हरीतिमा का फर्श बिछा देते हैं और वसंत की तरह अवतरित होते हैं।