अक्षय तृतीया वैशाख मास के शुक्‍ल पक्ष की तृतीय तिथि को मनाई जाती है. इस बार यह त्योहार 3 मई, मंगलवार के दिन है. माना जाता है कि इस दिन कोई भी शुभ कार्य करने के लिए पंचागं देखने की जरूरत नहीं है.

पुराणों में बताया गया है कि यह बहुत ही पुण्यदायी तिथि है इस दिन किए गए दान पुण्य के बारे में मान्यता है कि जो कुछ भी पुण्यकार्य इस दिन किए जाते हैं उनका फल अक्षय होता है यानी कई जन्मों तक इसका लाभ मिलता है. ऐसे में आज हम आपको अक्षय तृतीया से जुड़ी वो कथा बताने जा रहे हैं जब श्री कृष्ण ने न सिर्फ द्रौपदी की चीर हरण से रक्षा की थी बल्कि उन्हें एक ऐसा दिव्य वरदान भी दिया था जो आज भी अक्षय तृतीया के दिन हर स्त्री के पास स्वतः ही जागृत हो जाता है.

मित्र सुदामा के लिए तोले तीनों लोक
कहते हैं कि जिस दिन सुदामा अपने मित्र भगवान कृष्ण से मिलने गए थे, उस दिन अक्षय तृतीया तिथि थी. सुदामा के पास कृष्ण को भेंट करने के लिए चावल के मात्र कुछ मुट्ठी भर दानें ही थे, जिन्हें उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर दिया. उनके इस भाव के कारण कान्हा ने उनकी झोंपड़ी को महल में बदल दिया था.

बंगाल का 'हलखता'
देश के अनेक हिस्सों में इस तिथि का अलग-अलग महत्व है. उड़ीसा पंजाब में इस तिथि को किसानों की समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है. तो वहीं, बंगाल में इस दिन भगवान गणेशजी माता लक्ष्मीजी का पूजन कर सभी व्यापारी अपना लेखे-जोखे की किताब शुरू करते हैं. वहां इस दिन को 'हलखता' कहते हैं.

द्रौपदी चीर हरण
धार्मिक कथाओं के अनुसार द्वापर युग में महाभारत काल में जिस दिन दु:शासन ने द्रौपदी का चीर हरण किया था, उस दिन अक्षय तृतीया तिथि थी. उस दिन द्रौपदी की लाज बचाने के लिए श्रीकृष्ण स्वयं आये थे उन्होंने पांचाली को अक्षय चीर का वरदान प्रदान किया था.

पांडव पुत्र युधिष्ठर को मिला वरदान
अक्षय तृतीया के दिन ही पांडव पुत्र युधिष्ठर को अक्षय पात्र की प्राप्ति भी हुई थी. इसकी विशेषता यह थी कि इसमें कभी भी भोजन समाप्त नहीं होता था. इसी पात्र की सहायता से युधिष्ठिर अपने राज्य के भूखे गरीब लोगों को भोजन उपलब्ध कराते थे. भविष्य पुराण में अक्षय पात्र का संबंध स्थाली दान व्रत से भी बताया गया है.

भक्त धर्मदास का संकल्प
एक बार धर्मदास नाम के व्‍यक्ति ने अक्षय तृतीया का व्रत किया. इसके बाद ब्राह्मण को दान में पंखा, जौ, नमक, गेहूं, गुड़, घी, सोना दही द‍िया. यह सब देखकर उनकी पत्‍नी को बिल्‍कुल अच्‍छा नहीं लगा. उसने अपने पति को रोकने का बहुत प्रयास किया लेकिन वह नहीं मानें. हर साल वह पूरी श्रद्धा आस्‍था से अक्षय तृतीया का व्रत करते थे. धर्मदास अपने नाम की ही तरह थे. बुढ़ापे बीमारी की स्थिति में भी वह अक्षय तृतीया के द‍िन पूजा-पाठ दान-पुण्‍य का कार्य करते रहे. इसी के पुण्‍य-प्रताप से उन्‍होंने अगले जन्‍म में राजा कुशावती के रूप में जन्‍म लिया. अक्षय तृतीया व्रत के प्रभाव से राजा के राज्‍य में किसी भी तरह की कमी नहीं थी. इसके अलावा वह राजा आजीवन अक्षय तृतीया का व्रत दान-पुण्‍य करते रहे.