यज्ञ ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव 
। येन भूतान्यशेषाणि दृक्षस्यात्मन्यथो मयि।।  
अर्थात: हे पांडव! जिस ज्ञान को जानकर फिर तुम मोह में नहीं पड़ोगे, उस ज्ञान से तुम यह जान सकोगे कि जो कुछ भी है वह उसी परमात्मा की वजह से ही है।  गुरु, शिष्य को ज्ञान नहीं देता, बल्कि शिष्य की श्रद्धा गुरु से ज्ञान लेती है। उस ज्ञान से साधक का नज़रिया बदलने लगता है। उसमें काम, प्रोध, लोभ, मोह जैसी बुराइयां कमजोर पड़ने लगती हैं। ज्ञान बढ़ता जाता है और अज्ञान खत्म होता जाता है। धीरे-धीरे शिष्य की सभी बुराइयां खत्म होने लगती हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि ज्ञान की अग्नि मन में पड़े संस्कारों के बीज भी जला डालती है और मोह आदि विकार भस्म हो जाते हैं। इसलिए आत्मज्ञान हो जाने के बाद इंसान को मोह परेशान नहीं करता, क्योंकि यह मोह ही था, जिसके कारण अर्जुन कौरव सेना से युद्ध नहीं कर रहे थे।  
आगे भगवान कहते हैं कि इस आत्मज्ञान को पाकर पहले तुम अपने में सभी पुराने कर्मों को देखोगे और फिर उनको मुझ में देखोगे। यानी ज्ञान हो जाने के बाद साधक को पहले भगवान अपने भीतर दिखता है, फिर वही भगवान सब जगह दिखाई पड़ने लगता है। वरना हम मूर्ति में तो भगवान को देख लेते हैं, लेकिन अपने भीतर नहीं देख पाते, जबकि प्रक्रिया इससे उलट है। पहले अपने में भगवान का दर्शन करो, फिर सब में उसी को ही देखो।